सोमवार, 9 जनवरी 2012
शुक्रवार, 14 जनवरी 2011
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
गृह सज्जा : घर को दें पारंपरिक लुक
गृह सज्जा : घर को दें पारंपरिक लुक
हर तरफ फैशन के बड़ते दौर ने जहाँ सभी चीजों को बड़ावा दिया है। वहीं घरों की सजावट का प्रचलन अच्छा खासा बड़ गया है। केवल रंग-बिरंगी दीवारों से ही घर खूबसूरत नहीं बनता बल्कि घर में रखे साजो-सामान से भी घर की खूबसूरती निखरती है। यदि आप घर को नया रूप देना चाहते हैं तो एक बार पारंपरिक वस्तुओं से घर की सजावट करने के बारे में जरूर सोचिएगा।
लगभग हर छोटे-बड़े शहर में लगने वाली हस्तकला प्रदर्शनी या हाट-बाजार में आपको बहुत सारी ऐसी चीजें मिल जाएँगी जिन्हें आप अपने घर की सजावट में उपयोग कर सकते हैं।
कच्छी-कसीदे का सामान हो या राजस्थानी लाख का सामान, केरल का सीप का सामान आदि सभी कुछ हमें इन बाजारों में आसानी से मिल जाता है। लकड़ी के खिलौने, फोटो फ्रेम, पारंपरिक चित्र आदि आपके घर को सुंदर बनाने के साथ-साथ आपके दिल को सुकून भी देते हैं।
शहरों में जगह की कमी हम सभी की एक प्रमुख समस्या है। ऐसे में कम जगह में घर को अपनी पसंद में ढालना बहुत मुश्किल होता है। इसके बावजूद कुछ लोग इतने शौकीन होते हैं कि वे छोटी सी जगह को भी अपनी पसंद के अनुसार सुंदर बना लेते हैं।
भारत संस्कृति व परंपराओं का देश है। यहाँ हर प्रदेश की अपनी एक अलग पहचान व कला है।यदि हम इस कला को अपने घर की सजावट में उपयोग करें तो वह हमें शांति व सुकून देने के साथ-साथ हमारे घर की खूबसूरती में चार चाँद भी लगाएगा।
हर तरफ फैशन के बड़ते दौर ने जहाँ सभी चीजों को बड़ावा दिया है। वहीं घरों की सजावट का प्रचलन अच्छा खासा बड़ गया है। आजकल जहाँ देखो लोगों को थोड़ी सी भी खाली स्पेस मिली नहीं कि वे हरियाली बिखेरने लगते हैं। और इसी दौर में मकान और बंगले के कमरों के अनुरूप फूलों की साज.सज्जा का भी काफी प्रचलन बड़ गया है। जहाँ एक ओर फूलों का चलन बड़ा है। वहीं बाजार में रोजाना नित नए प्रकार के बुके और तरह.तरह के फूल हमें सजे हुए दिखाई देते हैं। घर की सजावट में फूलों का अपना भी विशष महत्व है जो आपके घर को चार.चाँद लगा देते हैं।
आइए हम आपको कुछ ऐसे टिप्स:
1. अपने घर में फूलों की सजावट करते समय हमेशा कमरे के रंग और कमरे के परदों के अनुसार ही फूलों एवं फूलदान का चयन करें। आजकल बाजार में अनेक प्रकार से डेकोरेट किए हुए फूलदान उपलबध हैं, जिन्हें आप आसानी से खरीदसकती हैं। इससे आपके घर की शानो.शौकत और ज्यादा बड़ जाएगी। और घर पर आने वाले मेहमान आपके द्वारा सजाए गए कमरे की तारीफ किए बिना नहीं रह पाएँग।
2. फूलदान में फूलों की सजावट करते समय पानी डालने में कंजूसी ना करें। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि फूलदान में पानी जितना ज्यादा होगा उतने ही फूल खिले.खिले दिखेंग। साथ ही अगर आपका फूलों को एकाध हफ्ते तक फरेश बनाए रखने का विचार हो तो पानी में एकाध छोटी चम्मच शक्कर मिला दें या एकाध एसि्प्रन की गोली डाल दें।
3.ज्यादा फूलों को एक.साथ जोडे रखने के लिए ओएसिस बिर्क का प्रयोग करें। फूलों की सजावट की बड़ती माँग के अनुसार आजकल यह बिर्क बाजार में आसानी से उपलबध होती है।
4. फूलदान के पानी को एक दिन छोडकर बदला जा सकता है। रोज पानी बदलेंगी तो फूल और पत्तियों को क्षति पहुँचने का डर रहेगा।
5. फूलदान सजाते समय सबसे बीच वाले भाग में लंबे डंडी वाले फूल और बाद में छोटे फूल और पत्तियों को इकट्ठा कर बिर्क से जोड दें।
6. बुके सजाते समय डार्क कलर या डार्क शड वाले फूलों को मध्य में रखें और हलके रंग वाले फूलों को आस.पास सजाएँ। इससे आपके गुलदस्ते में खूबसूरती आ जाएगी।
7. बाजार में फूलों को खरीदते समय अधखिले फूलों का ही चयन करें। इससे आपके फूलदान के फूल ज्यादा दिनों तक ताजा दिखाई देंग। अगर गुलदस्ता सजाने में देर हो तो ऐसे फूलों को घर लाने के पश्चात उनकी टहनियों को एकाध घंटा पानी के मर्तबान में रख दें।
8. आपके द्वारा बनाए गए बुके या गुलदस्ते को ज्यादा गरम कमरे में या धूप वाले स्थान पर ना रखें। इससे आपके गुलदस्ते के जल्दी मुरझने का डर रहेगा।
9. फूलों की सजावट के समय पत्तियों का महत्व भी समझें और उन्हें फूलों के साथ जोडे। इससे आपका फूलदान हराभरा दिखाई देगा। साथ ही वह आपके कमरे की रोशनी भीबड़ाएगा।
10. अगर आपके घर में बगीचा है या फूलों को आप अपने ही घर में उगाती हैं तो फूलों को हमेशा अलसुबह तोडें इससे फूलोंमें नमी ज्यादा समय तक बनी रहेगी। इससे फूल जल्दी नहीं मुरझएँग। इस तरह आप फूलों की सजावट से अपने कमरे को महका सकती हैं। जो आपके परिवार वालों के साथ.साथ आपके पति भी उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह पाएँग और इस तरह आप बनेंगी उनकी और प्रिय।
हर तरफ फैशन के बड़ते दौर ने जहाँ सभी चीजों को बड़ावा दिया है। वहीं घरों की सजावट का प्रचलन अच्छा खासा बड़ गया है। केवल रंग-बिरंगी दीवारों से ही घर खूबसूरत नहीं बनता बल्कि घर में रखे साजो-सामान से भी घर की खूबसूरती निखरती है। यदि आप घर को नया रूप देना चाहते हैं तो एक बार पारंपरिक वस्तुओं से घर की सजावट करने के बारे में जरूर सोचिएगा।
लगभग हर छोटे-बड़े शहर में लगने वाली हस्तकला प्रदर्शनी या हाट-बाजार में आपको बहुत सारी ऐसी चीजें मिल जाएँगी जिन्हें आप अपने घर की सजावट में उपयोग कर सकते हैं।
कच्छी-कसीदे का सामान हो या राजस्थानी लाख का सामान, केरल का सीप का सामान आदि सभी कुछ हमें इन बाजारों में आसानी से मिल जाता है। लकड़ी के खिलौने, फोटो फ्रेम, पारंपरिक चित्र आदि आपके घर को सुंदर बनाने के साथ-साथ आपके दिल को सुकून भी देते हैं।
शहरों में जगह की कमी हम सभी की एक प्रमुख समस्या है। ऐसे में कम जगह में घर को अपनी पसंद में ढालना बहुत मुश्किल होता है। इसके बावजूद कुछ लोग इतने शौकीन होते हैं कि वे छोटी सी जगह को भी अपनी पसंद के अनुसार सुंदर बना लेते हैं।
भारत संस्कृति व परंपराओं का देश है। यहाँ हर प्रदेश की अपनी एक अलग पहचान व कला है।यदि हम इस कला को अपने घर की सजावट में उपयोग करें तो वह हमें शांति व सुकून देने के साथ-साथ हमारे घर की खूबसूरती में चार चाँद भी लगाएगा।
हर तरफ फैशन के बड़ते दौर ने जहाँ सभी चीजों को बड़ावा दिया है। वहीं घरों की सजावट का प्रचलन अच्छा खासा बड़ गया है। आजकल जहाँ देखो लोगों को थोड़ी सी भी खाली स्पेस मिली नहीं कि वे हरियाली बिखेरने लगते हैं। और इसी दौर में मकान और बंगले के कमरों के अनुरूप फूलों की साज.सज्जा का भी काफी प्रचलन बड़ गया है। जहाँ एक ओर फूलों का चलन बड़ा है। वहीं बाजार में रोजाना नित नए प्रकार के बुके और तरह.तरह के फूल हमें सजे हुए दिखाई देते हैं। घर की सजावट में फूलों का अपना भी विशष महत्व है जो आपके घर को चार.चाँद लगा देते हैं।
आइए हम आपको कुछ ऐसे टिप्स:
1. अपने घर में फूलों की सजावट करते समय हमेशा कमरे के रंग और कमरे के परदों के अनुसार ही फूलों एवं फूलदान का चयन करें। आजकल बाजार में अनेक प्रकार से डेकोरेट किए हुए फूलदान उपलबध हैं, जिन्हें आप आसानी से खरीदसकती हैं। इससे आपके घर की शानो.शौकत और ज्यादा बड़ जाएगी। और घर पर आने वाले मेहमान आपके द्वारा सजाए गए कमरे की तारीफ किए बिना नहीं रह पाएँग।
2. फूलदान में फूलों की सजावट करते समय पानी डालने में कंजूसी ना करें। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि फूलदान में पानी जितना ज्यादा होगा उतने ही फूल खिले.खिले दिखेंग। साथ ही अगर आपका फूलों को एकाध हफ्ते तक फरेश बनाए रखने का विचार हो तो पानी में एकाध छोटी चम्मच शक्कर मिला दें या एकाध एसि्प्रन की गोली डाल दें।
3.ज्यादा फूलों को एक.साथ जोडे रखने के लिए ओएसिस बिर्क का प्रयोग करें। फूलों की सजावट की बड़ती माँग के अनुसार आजकल यह बिर्क बाजार में आसानी से उपलबध होती है।
4. फूलदान के पानी को एक दिन छोडकर बदला जा सकता है। रोज पानी बदलेंगी तो फूल और पत्तियों को क्षति पहुँचने का डर रहेगा।
5. फूलदान सजाते समय सबसे बीच वाले भाग में लंबे डंडी वाले फूल और बाद में छोटे फूल और पत्तियों को इकट्ठा कर बिर्क से जोड दें।
6. बुके सजाते समय डार्क कलर या डार्क शड वाले फूलों को मध्य में रखें और हलके रंग वाले फूलों को आस.पास सजाएँ। इससे आपके गुलदस्ते में खूबसूरती आ जाएगी।
7. बाजार में फूलों को खरीदते समय अधखिले फूलों का ही चयन करें। इससे आपके फूलदान के फूल ज्यादा दिनों तक ताजा दिखाई देंग। अगर गुलदस्ता सजाने में देर हो तो ऐसे फूलों को घर लाने के पश्चात उनकी टहनियों को एकाध घंटा पानी के मर्तबान में रख दें।
8. आपके द्वारा बनाए गए बुके या गुलदस्ते को ज्यादा गरम कमरे में या धूप वाले स्थान पर ना रखें। इससे आपके गुलदस्ते के जल्दी मुरझने का डर रहेगा।
9. फूलों की सजावट के समय पत्तियों का महत्व भी समझें और उन्हें फूलों के साथ जोडे। इससे आपका फूलदान हराभरा दिखाई देगा। साथ ही वह आपके कमरे की रोशनी भीबड़ाएगा।
10. अगर आपके घर में बगीचा है या फूलों को आप अपने ही घर में उगाती हैं तो फूलों को हमेशा अलसुबह तोडें इससे फूलोंमें नमी ज्यादा समय तक बनी रहेगी। इससे फूल जल्दी नहीं मुरझएँग। इस तरह आप फूलों की सजावट से अपने कमरे को महका सकती हैं। जो आपके परिवार वालों के साथ.साथ आपके पति भी उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह पाएँग और इस तरह आप बनेंगी उनकी और प्रिय।
शनिवार, 19 सितंबर 2009
कहानी कॉफी की
कॉफी दुनिया भर में किस तरह से लोकप्रिय हुई, यह कहानी बेहद दिलचस्प है। इंटरनेशनल कॉफी ऑर्गनाइजेशन केअनुसार, कॉफी की शुरुआत अरब देशों से हुई। यमन में पंद्रहवीं सदी के आसपास इसके पौधों की खेती की जाती थी। वैसे, अरब के व्यापारी किसी उर्वर बीज का व्यापार नहीं करते थे।
गौरतलब है कि कॉफी के बीन्स ही कॉफी के बीज होते हैं। जब इनके बाहरी हिस्से को उतार दिया जाता है, तो ये बीज उर्वर नहीं रह जाते। इस तरह, काफी समय तक कॉफी अरब देशों तक ही सीमित हो गई। वे डच थे, जो कॉफी को इन देशों से निकालकर हॉलैंड लाए। एशिया और भारत में भी कॉफी को लाने का श्रेय डच व्यापारियों को ही जाता है।
अरब के लोग शुरुआती समय में कॉफी के स्वाद से परिचित नहीं थे। कॉफी के प्रभाव का अंदाजा उन्हें तब हुआ, जब जानवरों ने इन पौधों को चरना शुरू किया। दरअसल, वे कॉफी के बीज खाने के बाद कुछ अजीब सी हरकतें करने लगते थे। उस समय आमतौर पर कैट नामक झाडी का प्रयोग स्टीमुलेंट के रूप में प्रयोग होता था। लेकिन जल्द ही इसका साइड इफेक्ट पता चला, जो काफी नुकसानदेह था।
जब लोगों को पता चला कि कॉफी के बीजों का भी स्टीमुलेंट की तरह प्रयोग हो सकता है, तो उन्होंने इनका सेवन करने में बिल्कुल देर नहीं की। हां, उस समय लोग इसे कॉफी नहीं, गहवा कहते थे। कहते हैं गहवा इसलिए पॉपुलर हुआ, क्योंकि इस्लाम में नशीले पदार्थो की मनाही थी और गहवा में इसकी भरपाई करने का सारा गुण था।
लगभग ग्यारहवीं सदी के आसपास कॉफी सेवन को बढावा देने के लिए कॉफी हाउसेस बनने लगे, जहां लोग कॉफी पीने के लिए इकट्ठा होते थे। जबकि ये स्थान विचारशील लोगों के विचार विनिमय और बहस मुबाहिसों के लिए लोकप्रिय होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि अरब समाज में एक तरह से सकारात्मक बदलाव पैदा हुआ। और इस तरह, कॉफी की प्रतिष्ठा में खूब इजाफा हुआ।
लगभग सोलहवीं सदी के आसपास इसकी खुशबू यूरोपीय देशों में भी फैलने लगी। हालांकि हर नई चीज की तरह कॉफी सेवन को लेकर भी तरह-तरह की अफवाहें सुनी जातीं। इसे कई नामों से नवाजा गया। कुछ इसे बाइटर इनवेंशन कहते। इन विवादों से दूर 1652 के आसपास यूरोप में पहला कॉफी हाउस बना। इसे पेनी यूनिवर्सिटीज कहा गया। पेनी इसलिए क्योंकि वहां एक पेनी यानी पैसा देने के बाद ही एक कप कॉफी मिलती थी।
सत्रहवीं सदी के मध्य में कॉफी की खुशबू अमेरिकी देशों में भी फैलने लगी। चाय से ज्यादा लोग कॉफी को पसंद करने लगे। आज दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील कॉफी इंडस्ट्री का गढ है। कॉफी हाउसेस के बनने और कॉफी के उत्पादन और इसकी गुणवत्ता को बढाने का प्रयास जारी है। व्यापार के लिए तेल के बाद कुछ बहुमूल्य उपयोगी वस्तुओं में कॉफी का स्थान सबसे ऊपर है। दिन की शुरुआत करना हो या थकावट से निजात पाने के लिए कॉफी हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है।
जेजे टीम
अरब के लोग शुरुआती समय में कॉफी के स्वाद से परिचित नहीं थे। कॉफी के प्रभाव का अंदाजा उन्हें तब हुआ, जब जानवरों ने इन पौधों को चरना शुरू किया। दरअसल, वे कॉफी के बीज खाने के बाद कुछ अजीब सी हरकतें करने लगते थे।
गौरतलब है कि कॉफी के बीन्स ही कॉफी के बीज होते हैं। जब इनके बाहरी हिस्से को उतार दिया जाता है, तो ये बीज उर्वर नहीं रह जाते। इस तरह, काफी समय तक कॉफी अरब देशों तक ही सीमित हो गई। वे डच थे, जो कॉफी को इन देशों से निकालकर हॉलैंड लाए। एशिया और भारत में भी कॉफी को लाने का श्रेय डच व्यापारियों को ही जाता है।
अरब के लोग शुरुआती समय में कॉफी के स्वाद से परिचित नहीं थे। कॉफी के प्रभाव का अंदाजा उन्हें तब हुआ, जब जानवरों ने इन पौधों को चरना शुरू किया। दरअसल, वे कॉफी के बीज खाने के बाद कुछ अजीब सी हरकतें करने लगते थे। उस समय आमतौर पर कैट नामक झाडी का प्रयोग स्टीमुलेंट के रूप में प्रयोग होता था। लेकिन जल्द ही इसका साइड इफेक्ट पता चला, जो काफी नुकसानदेह था।
जब लोगों को पता चला कि कॉफी के बीजों का भी स्टीमुलेंट की तरह प्रयोग हो सकता है, तो उन्होंने इनका सेवन करने में बिल्कुल देर नहीं की। हां, उस समय लोग इसे कॉफी नहीं, गहवा कहते थे। कहते हैं गहवा इसलिए पॉपुलर हुआ, क्योंकि इस्लाम में नशीले पदार्थो की मनाही थी और गहवा में इसकी भरपाई करने का सारा गुण था।
लगभग ग्यारहवीं सदी के आसपास कॉफी सेवन को बढावा देने के लिए कॉफी हाउसेस बनने लगे, जहां लोग कॉफी पीने के लिए इकट्ठा होते थे। जबकि ये स्थान विचारशील लोगों के विचार विनिमय और बहस मुबाहिसों के लिए लोकप्रिय होने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि अरब समाज में एक तरह से सकारात्मक बदलाव पैदा हुआ। और इस तरह, कॉफी की प्रतिष्ठा में खूब इजाफा हुआ।
लगभग सोलहवीं सदी के आसपास इसकी खुशबू यूरोपीय देशों में भी फैलने लगी। हालांकि हर नई चीज की तरह कॉफी सेवन को लेकर भी तरह-तरह की अफवाहें सुनी जातीं। इसे कई नामों से नवाजा गया। कुछ इसे बाइटर इनवेंशन कहते। इन विवादों से दूर 1652 के आसपास यूरोप में पहला कॉफी हाउस बना। इसे पेनी यूनिवर्सिटीज कहा गया। पेनी इसलिए क्योंकि वहां एक पेनी यानी पैसा देने के बाद ही एक कप कॉफी मिलती थी।
सत्रहवीं सदी के मध्य में कॉफी की खुशबू अमेरिकी देशों में भी फैलने लगी। चाय से ज्यादा लोग कॉफी को पसंद करने लगे। आज दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील कॉफी इंडस्ट्री का गढ है। कॉफी हाउसेस के बनने और कॉफी के उत्पादन और इसकी गुणवत्ता को बढाने का प्रयास जारी है। व्यापार के लिए तेल के बाद कुछ बहुमूल्य उपयोगी वस्तुओं में कॉफी का स्थान सबसे ऊपर है। दिन की शुरुआत करना हो या थकावट से निजात पाने के लिए कॉफी हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है।
जेजे टीम
अरब के लोग शुरुआती समय में कॉफी के स्वाद से परिचित नहीं थे। कॉफी के प्रभाव का अंदाजा उन्हें तब हुआ, जब जानवरों ने इन पौधों को चरना शुरू किया। दरअसल, वे कॉफी के बीज खाने के बाद कुछ अजीब सी हरकतें करने लगते थे।
शुक्रवार, 18 सितंबर 2009
हम सब खड़े बाज़ार में
भारतीय बाज़ार एक नई करवट ले रहा है। उसका विस्तार चौंकाने वाला है और समृध्दि चौंधियानेवाली। पिछले दस सालों में भारतीय बाज़ार का विस्तारवाद कई तरह से निंदा और आलोचना के केंद्र में भी है। बावजूद इसके यह बढ़ता जा रहा है और रोज नई संभावनाओं के साथ और विस्तार ले रहा है। बाज़ार की भाषा, उसके मुहावरे, उसकी शैली और शिल्प सब कुछ बदल गए हैं। यह भाषा आज की पीढ़ी समझती है और काफी कुछ उस पर चलने की कोशिश भी करती है।
भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं।
भारत का ग्रामीण बाज़ार अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं। आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।
भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि ग्रामीण भारत में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय जनमानस समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्याेंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह ग्रामीण भारत, एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं।
भारत के गाँवों में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?
भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँव में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं।
भारत का ग्रामीण बाज़ार अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं। आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है।
भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूपता के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि ग्रामीण भारत में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय जनमानस समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्याेंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह ग्रामीण भारत, एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं।
भारत के गाँवों में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?
सेक्स की दवाओं से पटा है बाज़ार
सेक्स बिकाऊ है। इससे जुड़ी हर दुकान हमेशा चलती है, चाहे वह सेक्स क्लिनिक हो या सेक्स ताकत बढ़ाने वाली दवाओं के कारोबारी लुकमानी दवाखाने। शहरों में अखबार, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं व रेल्वे लाइन के किनारे दीवारों आदि पर नामर्दी व गुप्त रोगों के इलाज का प्रचार होता है। गली-मुहल्लों में दीवारों और बिजली के खंभों पर हैंडबिल चिपका कर सेक्स से जुड़ी बीमारियों को ठीक करने का प्रचार किया जाता है। रेल कंपार्टमेंट में भी ऐसी क्लिनिकों का प्रचार करते हैंडबिल देखे जा सकते हैं। इन सारे इश्तिहारों में नामर्दगी, शीघ्र पतन, स्वप्नदोष और हर तरह के गुप्त रोगों के `शर्तिया' इलाज का दावा किया जाता है।
आज के भागमभाग वाले दौर में बड़ी तादाद में लोग सेक्स से जुड़ी तथाकथित बीमारियों से परेशान हैं। ये बीमारियाँ जितनी जिस्मानी नहीं, उससे ज्यादा दिमागी होती हैं। इसी का फायदा नीम-हकीम, दवा-दुकानदार और स्वनामधन्य सेक्स विशेषज्ञ उठा रहे हैं।
सेक्स क्षमता बढ़ाने के नाम पर कई तरह की दवाइयाँ धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन दवाइयों के खरीदार नौजवानों से लेकर उम्रदराज पुरुष तो हैं ही, अब महिलाएँ भी ऐसी दवाओं के सेवन में पीछे नहीं हैं। ये दवाएँ कैप्सूल, प्रे, जेली, तेल और कैंडी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध हैं। इन दवाओं की बिक्री से करोड़ों रुपये का गोरखधंधा धड़ल्ले से चल रहा है।
अपने आप को यौन रोगों का माहिर डॉक्टर बताने वाले दरअसल मरीज़ को किसी तरह की दवा नहीं देते। इसके लिए किसी तरह की दवा बनी भी नहीं है। विटामिन-ई को कुछ डॉक्टर अवश्य सेक्स-टॉनिक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 1960 से 1970 के बीच चूहों पर किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद यह बात गलत ढंग से कही गई कि विटामिन-ई के सेवन से इंसान की सेक्स क्षमता को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन 1978 में एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने इस बात को साबित कर दिया कि इससे सेक्स की ताकत पर कोई असर नहीं पड़ता है। कुछ सेक्स क्लिनिक आयुर्वेदिक दवा के नाम पर पिस्ता, बादाम वगैरह जैसे मेवों का इस्तेमाल करते हैं।
आकर्षक ब्रांड नामों से सजीं, सेक्स की ताकत बढ़ाने का दावा करतीं कंपनियाँ लोगों को सरेआम लूट रही हैं। ये कंपनियाँ सेक्स पावर बढ़ाने, शीघ्र पतन रोकने और अंगों की कमज़ोरी को दूर करने का दावा करती हैं। लोग भी इनके झांसे में आसानी से आ जाते हैं, जबकि सच बात तो यह है कि ये दवाएँ कितनी असरदार हैं, कोई नहीं जानता।
चूँकि ज्यादातर दवाइयाँ आयुर्वेदिक होती हैं और इनके बनाने को लेकर कोई खोज भी नहीं की गई होती है, इसलिए इनकी विश्वसनीयता पर हमेशा संदेह रहता है। ज्यादातर दवाओं के पैकेट पर लाइसेंस नंबर तक नहीं लिखा होता है। इन दवाओं का कब, कितना असर होगा, यह खरीदने वाला तो क्या, इन्हें बेचने या बनाने वाला भी नहीं जानता है।
ज्यादातर दवाएँ फर्जी कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं। इतना तो तय है कि इक्का-दुक्का दवाओं में ही शिलाजीत, सफेद मूसली और कौंच के बीज जैसी चीजों का इस्तेमाल होता है। ज्यादातर दवाओं पर उनको बनाने में इस्तेमाल की गई चीजों का ब्यौरा भी नहीं लिखा जाता है। दवा कंपनियों द्वारा केमिस्टों को भी कई तरह की स्कीमों और भारी कमीशन के अलावा उधार देकर इन दवाइयों को बेचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
यौन विशेषज्ञों के मुताबिक सेक्स हार्मोन का नाम टेस्टोस्टेरॉन है। यौन उत्तेजना के लिए यही ज़िम्मेदार है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, इसका असर कम होता जाता है। दवाओं के रूप में इसका इस्तेमाल आज तक कुछ मामलों में ही कामयाब हो सका है। जैसे- जब शरीर में सचमुच सेक्स हार्मोन की कमी हो या सेक्स लक्षणों के विकास में नाकामी दिखाई देती हो या फिर बढ़ती उम्र में टेस्टोस्टेरॉन की मात्रा घट जाने का सबूत मौजूद हो।
अगर इसका इस्तेमाल बिना सोचे-समझे किया जाए, तो यह शुक्राणुओं की तादाद को कम भी कर सकता है। यह लीवर के काम में भी गड़बड़ी पैदा कर सकता है और कैंसर होने का खतरा भी बढ़ा देता है। महिलाओं में भी इसके इस्तेमाल के कई असर दिखाई पड़ सकते हैं। जैसे- बालों का गिरना या गंजापन होना, क्लिटोरिस का बढ़ना, आवाज़ भारी होना वगैरह। इसलिए जब तक ज़रूरी लक्षणों और परीक्षणों से टेस्टोस्टेरॉन की कमी का पक्का सबूत नहीं मिल जाता, तब तक उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
ज्यादातर दवाएँ पुरुषों के लिए हैं। महिलाओं के लिए भी कुछ दवाएँ हैं। महिलाओं के लिए जो दवाएँ बाज़ार में उपलब्ध हैं, उनके इश्तिहारों में सबसे पहली बात यह होती है कि नारीत्व की संपूर्णता व आत्मविश्वास के लिए इसे अपनाएँ। इसके बाद अच्छी व सुडौल काया बनाने के दावे होते हैं। इनमें कुछ दवाएँ कैप्सूल के रूप में उपलब्ध हैं और कुछ मसाज ऑइल के रूप में। महिलाओं के लिए उपलब्ध कई दवाओं के इश्तिहार में खास तौर पर बड़े अक्षरों में यह ज़रूर लिखा जाता है `रुकी माहवारी में कारगर'। साथ में फिर बड़ी चालाकी से चेतावनी के रूप में इश्तिहार का फोकस इस बात पर किया जाता है कि `सावधान, गर्भावस्था में प्रयोग वर्जित है, गर्भ गिर सकता है।'
आमतौर पर हर महिला अपने इस खास तत्व को और अधिक बेहतर रूप में पाना चाहती है। यही बात पुरुषों के लिए भी सही है। वह भी अधिक से अधिक जवां रहना चाहेंगे। कुछ सेक्स दवाएँ महिलाओं या पुरुषों को उनकी कुदरती क्षमता से आगे बढ़कर `वाइल्ड' होने के लिए उकसाती नज़र आती हैं। ये इश्तिहार सेक्स को लेकर कई तरह की गलतफहमी तो पैदा करते ही हैं, साथ ही समाज में अपसंस्कृति फैलाने का भी काम करते हैं।
आज के भागमभाग वाले दौर में बड़ी तादाद में लोग सेक्स से जुड़ी तथाकथित बीमारियों से परेशान हैं। ये बीमारियाँ जितनी जिस्मानी नहीं, उससे ज्यादा दिमागी होती हैं। इसी का फायदा नीम-हकीम, दवा-दुकानदार और स्वनामधन्य सेक्स विशेषज्ञ उठा रहे हैं।
सेक्स क्षमता बढ़ाने के नाम पर कई तरह की दवाइयाँ धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन दवाइयों के खरीदार नौजवानों से लेकर उम्रदराज पुरुष तो हैं ही, अब महिलाएँ भी ऐसी दवाओं के सेवन में पीछे नहीं हैं। ये दवाएँ कैप्सूल, प्रे, जेली, तेल और कैंडी के रूप में बाज़ार में उपलब्ध हैं। इन दवाओं की बिक्री से करोड़ों रुपये का गोरखधंधा धड़ल्ले से चल रहा है।
अपने आप को यौन रोगों का माहिर डॉक्टर बताने वाले दरअसल मरीज़ को किसी तरह की दवा नहीं देते। इसके लिए किसी तरह की दवा बनी भी नहीं है। विटामिन-ई को कुछ डॉक्टर अवश्य सेक्स-टॉनिक के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 1960 से 1970 के बीच चूहों पर किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद यह बात गलत ढंग से कही गई कि विटामिन-ई के सेवन से इंसान की सेक्स क्षमता को बढ़ाया जा सकता है, लेकिन 1978 में एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने इस बात को साबित कर दिया कि इससे सेक्स की ताकत पर कोई असर नहीं पड़ता है। कुछ सेक्स क्लिनिक आयुर्वेदिक दवा के नाम पर पिस्ता, बादाम वगैरह जैसे मेवों का इस्तेमाल करते हैं।
आकर्षक ब्रांड नामों से सजीं, सेक्स की ताकत बढ़ाने का दावा करतीं कंपनियाँ लोगों को सरेआम लूट रही हैं। ये कंपनियाँ सेक्स पावर बढ़ाने, शीघ्र पतन रोकने और अंगों की कमज़ोरी को दूर करने का दावा करती हैं। लोग भी इनके झांसे में आसानी से आ जाते हैं, जबकि सच बात तो यह है कि ये दवाएँ कितनी असरदार हैं, कोई नहीं जानता।
चूँकि ज्यादातर दवाइयाँ आयुर्वेदिक होती हैं और इनके बनाने को लेकर कोई खोज भी नहीं की गई होती है, इसलिए इनकी विश्वसनीयता पर हमेशा संदेह रहता है। ज्यादातर दवाओं के पैकेट पर लाइसेंस नंबर तक नहीं लिखा होता है। इन दवाओं का कब, कितना असर होगा, यह खरीदने वाला तो क्या, इन्हें बेचने या बनाने वाला भी नहीं जानता है।
ज्यादातर दवाएँ फर्जी कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं। इतना तो तय है कि इक्का-दुक्का दवाओं में ही शिलाजीत, सफेद मूसली और कौंच के बीज जैसी चीजों का इस्तेमाल होता है। ज्यादातर दवाओं पर उनको बनाने में इस्तेमाल की गई चीजों का ब्यौरा भी नहीं लिखा जाता है। दवा कंपनियों द्वारा केमिस्टों को भी कई तरह की स्कीमों और भारी कमीशन के अलावा उधार देकर इन दवाइयों को बेचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
यौन विशेषज्ञों के मुताबिक सेक्स हार्मोन का नाम टेस्टोस्टेरॉन है। यौन उत्तेजना के लिए यही ज़िम्मेदार है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, इसका असर कम होता जाता है। दवाओं के रूप में इसका इस्तेमाल आज तक कुछ मामलों में ही कामयाब हो सका है। जैसे- जब शरीर में सचमुच सेक्स हार्मोन की कमी हो या सेक्स लक्षणों के विकास में नाकामी दिखाई देती हो या फिर बढ़ती उम्र में टेस्टोस्टेरॉन की मात्रा घट जाने का सबूत मौजूद हो।
अगर इसका इस्तेमाल बिना सोचे-समझे किया जाए, तो यह शुक्राणुओं की तादाद को कम भी कर सकता है। यह लीवर के काम में भी गड़बड़ी पैदा कर सकता है और कैंसर होने का खतरा भी बढ़ा देता है। महिलाओं में भी इसके इस्तेमाल के कई असर दिखाई पड़ सकते हैं। जैसे- बालों का गिरना या गंजापन होना, क्लिटोरिस का बढ़ना, आवाज़ भारी होना वगैरह। इसलिए जब तक ज़रूरी लक्षणों और परीक्षणों से टेस्टोस्टेरॉन की कमी का पक्का सबूत नहीं मिल जाता, तब तक उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
ज्यादातर दवाएँ पुरुषों के लिए हैं। महिलाओं के लिए भी कुछ दवाएँ हैं। महिलाओं के लिए जो दवाएँ बाज़ार में उपलब्ध हैं, उनके इश्तिहारों में सबसे पहली बात यह होती है कि नारीत्व की संपूर्णता व आत्मविश्वास के लिए इसे अपनाएँ। इसके बाद अच्छी व सुडौल काया बनाने के दावे होते हैं। इनमें कुछ दवाएँ कैप्सूल के रूप में उपलब्ध हैं और कुछ मसाज ऑइल के रूप में। महिलाओं के लिए उपलब्ध कई दवाओं के इश्तिहार में खास तौर पर बड़े अक्षरों में यह ज़रूर लिखा जाता है `रुकी माहवारी में कारगर'। साथ में फिर बड़ी चालाकी से चेतावनी के रूप में इश्तिहार का फोकस इस बात पर किया जाता है कि `सावधान, गर्भावस्था में प्रयोग वर्जित है, गर्भ गिर सकता है।'
आमतौर पर हर महिला अपने इस खास तत्व को और अधिक बेहतर रूप में पाना चाहती है। यही बात पुरुषों के लिए भी सही है। वह भी अधिक से अधिक जवां रहना चाहेंगे। कुछ सेक्स दवाएँ महिलाओं या पुरुषों को उनकी कुदरती क्षमता से आगे बढ़कर `वाइल्ड' होने के लिए उकसाती नज़र आती हैं। ये इश्तिहार सेक्स को लेकर कई तरह की गलतफहमी तो पैदा करते ही हैं, साथ ही समाज में अपसंस्कृति फैलाने का भी काम करते हैं।
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